जब गाँधी,पटेल और राजेंद्र बाबू, राष्ट्रपिता के देश में
राष्ट्रपति बनने के लिए
ऐसे लोगों को मोल भाव करते देखते होंगे
तो बरबस रो देते होंगे!
भ्रष्टाचार तो उनका भी जीवन बना होगा
और परिवारवाद की भी आदत पड़ी होगी
पर यूँ प्रजातंत्र का मखौल होता देख
सिर्फ आजादी का शोक मानते होंगे
वोह लोह पुरुष भी ज़ार ज़ार रोते होंगे
इस वतन की कभी आवाज़ थी
जब एक आदमी के पीछे दुनिया खड़ी थी
अपनी तस्वीर आज दीवार पर देख
और उस तस्वीर के नीचे की राजनीति देख
आज बापू भी झल्लाते होंगे
शायद गोडसे को धन्यवाद देते
वोह भी बस आंसू बहाते होंगे
सब इस कुर्सी का खेल है देखो
जिसकी शोभा कभी उनके विराजने से बढ़ी
आज तो राजेंद्र बाबू की वोह कुर्सी भी बस बिलक ही पड़ी
यह राजनीतिक पद नहीं
यह तो नैतिक स्तम्भ है
यह कागज़ी मोहर नहीं
यह देश का गर्व है
अब सब्र टूटा और
यह कुर्सी भी मचल कर बोली
ऐसे सांप सीढ़ी के खेल से तो
नहीं चाहिए कोई नया राष्ट्रपति